शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

'मिल्खा को शब्दों में शायद समझा न पाऊं'

फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा से मुलाकात
कॉलेज के बाद दिल्ली की गलियों में महीनों यूरेका फोब्र्स के वेक्यूम क्लीनर बेचने वाले राकेश बिल्कुल नहीं बदले। तब दोस्त मल्टीनेशनल्स में लगे और ये सेल्समैन बने। आज साथी फिल्ममेकर सुनी-सुनाई आसानी से बनने वाली कमर्शियल फिल्में बना रहे हैं और वह इंडिया के आइकॉनिक धावक मिल्खा सिंह पर बायोपिक अक्टूबर तक शुरू करने वाले हैं। थोड़ा नर्वस हैं, पर भेड़चाल में घुसने की मंशा नहीं है।
हाल ही में आपने 'तीन थे भाई' प्रॉड्यूस की थी। क्या लगा नहीं था कि वसीयत की कहानी पर दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, तो इसे क्यों प्रॉड्यूस किया जाए?
दुनिया में गिने-चुने प्लॉट ही होते हैं। बस बोलने का तरीका और कहानी में अनोखापन अलग होता है। ये एक कैरेक्टर ड्रिवन स्टोरी थी, सुनते ही मुझे कैरेक्टर्स से प्यार हो गया। इतनी जगह रामलीलाएं होती हैं, कहते तो वो भी एक ही कहानी हैं।

फ़िल्म बनाते वक्त आपमें
बैठे प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर पर किसका प्रैशर होता है, मार्केट का या क्रिएटिव हूक का?
मेरा तो मेरे से ही होता है, अपने आप से। कि एक्सीलेंस का पीछा करता रहूं, काम अच्छा हो जाए। गलतियां तो इस दौरान होती रहती हैं। पर आपका छोटा सा प्रयास भी ऑडियंस को छूता है। हमारी ऑडियंस बहुत ब्रिलियंट है, वो दो मिनट में पहचान जाती है, कि किसने क्या किया है।

'भाग मिल्खा भाग' की शूटिंग चंडीगढ़ के आस-पास शुरू होने वाली थी। पर मैंने कहीं पढ़ा कि आप थोड़ा सा नर्वस हो रहे हैं?
थोड़ा सा? मैं रातों को सो नहीं पाता। इसके लिए थोड़ा सा कहना तो बहुत कम होगा। बड़ी चैलेंजिंग स्टोरी है। एक रियल लाइफ स्टोरी पर काम करने और उसे ड्रमैटिक बनाने में जरूरतें ही कुछ और हो जाती हैं। रियल इंसान पर बात कर रहे हैं तो हकीकत से जुड़े रहने होता है, सिनसियर बने रहना है, स्टोरी से जस्टिस करना है। मैं जब इस जर्नी में घुसता हूं तो दिल में इमोशन उमडऩे लगते हैं, शायद मैं आपको जुबां से समझा न पाऊं।

80-100 करोड़ में फिल्में बन रही हैं, स्टार्स करोड़ों फीस ले रहे हैं, पर रिजल्ट अच्छा नहीं दे रहे है?
ये स्क्रिप्ट तय करती है कि पैसा कितना लगे। अगर द्वितीय विश्व युद्ध पर या आजादी पर या कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म बना रहे हैं तो बजट बड़ा होगा। अगर आप 'शोले' बना रहे हैं जिसमें ट्रेन सीक्वेंस है या बहुत सी रॉबरी हैं तो बजट बड़ा होगा। मगर सिंपल आइडिया पर रोमेंटिक या कॉमेडी बना रहे हैं तो बजट कम होना चाहिए। हमें अपने बजट को स्टार्स की तुलना पर नहीं लाना चाहिए। सौ-डेढ़ सौ करोड़ की फिल्म बनाइए पर वो परदे पर दिखना चाहिए। पर जरूरत से ज्यादा खर्चा खराब है। मैं दूसरों की बात क्यों करूँ, मैंने 'दिल्ली-6' बनाई और जहां एक रुपया खर्च करना था वहां दो रुपए खर्च किए। पर अब मैं सीख चुका हूं।

'दिल्ली-6' में काला बंदर था, तो 'अक्स' में नेगेटिव पॉजिटिव का चेंज-इंटरचेंज। लोगों को ये एब्सट्रैक्ट पॉइंट समझ नहीं आए, ऐसे में फिल्ममेकर के तौर पर क्या बीतती है?
यही सोचता हूं कि मेरे को सीखना चाहिए। जो मैं बोल रहा हूं वो सही है, बस उसके बोलने के तरीके को और सहज करूं तो और फिल्म का आधार और व्यापक हो जाएगा। जरूरी ये नहीं कि फिल्म पांच या सात करोड़ में बनी है, जरूरी ये है कि उसकी कीमत सौ रूपए जितनी है कि नहीं। अपनी मेहनत से कमाए 100 रुपए से टिकट खरीदकर ऑडियंस फिल्म देखने जाती है, तो उसको उसकी कीमत मिलनी चाहिए। कई बार उसे 100 में हजार रूपए का अनुभव होता है, कई बार प्राइसलेस। जैसे लगा कि 'रंग दे बसंती' में हमने लाखों का अनुभव ले लिया, पर कई बार ऐसे नहीं हुआ।

'रंग दे बसंती' में क्रांतिकारियों की फुटेज और मौजूदा दौर को जैसे मिक्स किया, क्या वैसा ही 'भाग मिल्खा..' में भी करना पड़ेगा?
रंग दे.. में एक फिल्म में दो फिल्में चल रही थी। एक 1920 की क्रांति थी, जो चंद्रशेखर आजाद से होते हुए भगतसिंह तक पहुंची थी। पर मिल्खा जी की स्टोरी में हम मिल्खा जी पर ही फोकस्ड रहे हैं। फिल्म में हमें एक तो ग्यारह साल के मिल्खा को दिखाना है और एक बीस से अठाइस साल तक के मिल्खा को।

पर वो ब्लैक एंड वाइट दौर तो क्रिएट करना होगा न?
हां, पर आज मिलता नहीं है। आज की सड़कें देख लीजिए, तब मिट्टी की सड़कें होती थी। पहले टीवी, उसके एंटीने, मोबाइल टावर्स कुछ नहीं होते थे, तो ऐसी जगहें ढूंढनी पड़ेंगी। ईंटें भी अलग होती थी, मिट्टी के घर होते थे, अलग गाडिय़ां होती थी, तो वो सब ढूंढ-ढूंढ कर लानी पड़ेगी।

यूं नहीं लगता कि फिल्मों में एंट्री लेने से पहले बहुत कहानियां थी और अब कुछ भी आइडिया नहीं है?
सौ प्रतिशत ऐसा ही है। कमाल का सवाल है। जो आपके अंदर ये है वो ही बाहर निकलेगा। आप राइट साइड से खाली होते हैं तो अपने आप को भरने की बहुत जरूरत है, इसलिए लाइफ से जुडऩा पड़ता है। जैसे आप जुड़े हुए थे पहले। फ्रैश आइडियाज के लिए लोगों से मिलो, लोगों से प्यार करो, जिंदगी से प्यार करो, सोचो, जिनके लिए आप बनाना चाह रहे हो वैसे ही माहौलों में जाओ। बैसिकली अपने आप को सिंपल रखो, अलग मत रखो। खुद को रीइनवेंट करते रहो।

कौन सी फिल्मों पर काम कर रहे हैं?
दो-चार कहानियां और है। एक 'राजा' हैं, मिथिकल है, 1898 में सेट है। कृष्ण की कहानी है उनकी बांसुरी की कहानी है। 'कैजुअल कामसूत्र' है जो वल्र्ड फैशन में धूसर ग्रामीण अक्स दिखाएगी। कहानियां तो हैं। एक 'भैरवी' है।

कुछ और...
# मेरी फेवरेट फिल्में 50 और 60 के दशक की हैं। जब हम एस्केपिस्ट सिनेमा में नहीं घुसे थे, उससे पहले की। मैं अभी भी उन फिल्मों के इर्द-गिर्द ही घूम रहा हूं।
# सक्सेस को रिपीट करना जिंदगी में सबसे बोरिंग चीज है।
# ये सोचना गलत है कि अमेरिका से फिल्म कोर्स करके आओगे तो फिल्म बनाओगे। बनाओगे भी तो गलत, क्योंकि वो ज्यादा से ज्यादा एक अमेरिकन आइडिया मेड इन इंडिया होगी।
# बदलाव तभी आएगा जब कस्बों और छोटे शहरों से फिल्में बननी शुरू होंगी। जब वहां से सब्जेक्ट आएंगे, वहां से लोग आएंगे।