गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं है जिसका हल न हो और मेरा एक बड़ा उसूल है कि बड़ा फोकस नहीं रखतीः समृद्धि पोरे

 Q & A. .Samruddhi Porey, Director Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte-The Real Hero.



मला आई व्हायचय! समृद्धि पोरे की पहली फिल्म थी। इसे 2011 में सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। बॉम्बे हाईकोर्ट में सरोगेट मदर्स के मामलों से उनका सामना हुआ और उन्होंने इसी कहानी पर ये फिल्म बनाई। एक विदेशी औरत एक महाराष्ट्रियन औरत की कोख किराए पर लेती है। उसे गोरा बच्चा होता है लेकिन बाद में मां पैसे लेने से इनकार कर देती है और बच्चा नहीं देती। फिर वही बच्चा मराठी परिवेश में पलता है। आगे भावुक मोड़ आते हैं। समृद्धि कानूनी सलाहकार के तौर पर मराठी फिल्म ‘श्वास’ से जुड़ी थीं और इसी दौरान उन्होंने फिल्म निर्देशन में आने का मन बना लिया। कहां वे कानूनी प्रैक्टिस कर रही थीं और कहां फिल्ममेकिंग सीखने लगीं। फिर उनकी पहली फिल्म ये रही। अब वे एक और सार्थक फिल्म ‘हेमलकसा’ लेकर आ रही हैं। इसका हिंदी शीर्षक ये है और मराठी शीर्षक ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ है। रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी प्रकाश आमटे और उनकी पत्नी मंदाकिनी के जीवन पर ये फिल्म आधारित है। इसमें इन दो प्रमुख भूमिकाओं को नाना पाटेकर और सोनाली कुलकर्णी ने निभाया है। फिल्म 10 अक्टूबर को हिंदी, मराठी व अंग्रेजी भाषा में रिलीज हो रही है। विश्व के कई फिल्म महोत्सवों में इसका प्रदर्शन हो चुका है। इसे लेकर प्रतिक्रियाएं श्रद्धा, हैरत और प्रशंसा भरी आई हैं।

प्रकाश आमटे, प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आमटे के पुत्र हैं। बाबा आमटे सभ्रांत परिवार से थे। उनके बारे में ये सुखद आश्चर्य वाली बात है कि वे फिल्म समीक्षाएं किया करते थे, ‘पिक्चरगोअर’ मैगजीन के लिए। वर्धा में वे वकील के तौर पर प्रैक्टिस करते थे। ये आजादी से पहले की बात है। वे स्वतंत्रता संग्राम में भी शामिल हुए। गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित बाबा आमटे गांधीवादी बन गए और ताउम्र ऐसे ही रहे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा करनी शुरू की। तब समाज में कुष्ठ को कलंक से जोड़ कर देखा जाता था और इसे लेकर अस्पर्श्यता थी। आजादी के तुरंत बाद उस दौर में बाबा आमटे ने ऐसे रोगियों और कष्ट में पड़े लोगों के लिए महाराष्ट्र में तीन आश्रम खोले। उन्हें गांधी शांति पुरस्कार, पद्म विभूषण और रमन मैग्सेसे से सम्मानित किया गया। डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद अपना शहरी करियर छोड़ बेटे प्रकाश आमटे भी गढ़चिरौली जिले के जंगली इलाके में आ गए और 1973 में लोक बिरादरी प्रकल्प आश्रम खोला और आदिवासियों, पिछड़े तबकों और कमजोरों की चिकित्सा करने लगे। बच्चों को शिक्षा देने लगे। उनका केंद्र महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमाओं से लगता था और वहां के जंगली इलाकों में मूलभूत रूप में रह रहे लोगों के जीवन को सहारा मिला। उनकी एम.बी.बी.एस. कर चुकीं पत्नी मंदाकिनी भी इससे जुड़ गईं। बाबा आमटे के दूसरे पुत्र विकास और उनकी पत्नी भारती भी डॉक्टर हैं और वे भी सेवा कार्यों से जुड़ गए। आज इनके बच्चे भी गांधीवादी मूल्यों पर चल रहे हैं और अपने-अपने करियर छोड़ समाज सेवा के कार्यों को समर्पित हैं।

Cover of Ran Mitra
प्रकाश और मंदाकिनी आमटे को 2008 में उनके सामाजिक कार्यों के लिए फिलीपींस का सार्थक पुरस्कार रमन मैग्सेसे दिया गया। उनके अनुभवों के बारे में प्रकाश की लिखी आत्मकथा ‘प्रकाशवाटा’ और जंगली जानवरों से उनकी दोस्ती पर ‘रान मित्र’ जैसी किताब से काफी कुछ जान सकते हैं। जब उन्होंने गढ़चिरौली में अपने कार्य शुरू किए, उसी दौरान उन्होंने वन्य जीवों के संरक्षण का काम भी शुरू किया। आदिवासी पेट भरने के लिए दुर्लभ जीवों, बंदरों, चीतों, भालुओं का शिकार करके खा जाते थे। प्रकाश ने देखा कि उनके बच्चे पीछे भूखे बिलखते थे तो उन्होंने भोजन के बदले मारे गए जानवरों के बच्चे आदिवासियों से लेकर अपने जंतुआलय की शुरुआत की। लोक बिरादरी प्रकल्प, इस जंतुआलय और करीबी इलाके को हेमलकसा के नाम से जाना जाता है। इसी पर फिल्म का हिंदी शीर्षक रखा गया है। यहां शेर, चीते, भालू, सांप, मगरमच्छ, लकड़बग्गे और अन्य जानवर रहते हैं। प्रकाश उन्हें अपने हाथ से खाना खिलाते हैं, उनके साथ खेलते हैं और उनके बीच एक प्रेम का रिश्ता दिखता है। समृद्धि ने अपनी फिल्म में ये रिश्ता बयां किया है। महानगरीय संस्कृति के फैलाव और प्रकृति से हमारे छिटकाव के बाद जब हेमलकसा जैसी फिल्में आती हैं तो सोचने को मजबूर होते हैं कि हमारी यात्रा किस ओर होनी थी। सफलता, करियर, समृद्धि, आधुनिकता, निजी हितों के जो शब्द हमने चुन लिए हैं, उनके उलट कुछ इंसान हैं जो मानवता के रास्ते से हटे नहीं हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रेम बांटने और दूसरों की सहायता करने की है। और इससे वे खुश हैं। ‘हेमलकसा/डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ ऐसी फिल्म है जिसे वरीयता देकर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म को या फिल्म के विषय को इससे कुछ मिलेगा, इसलिए कि हमारी जिंदगियों में बहुत सारी प्रेरणा, ऊर्जा और दिशा आएगी। खुश होने और एक बेहतर समाज बनाने की कुंजी मिल पाएगी।

इस फिल्म को लेकर समृद्धि पोरे से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैः

फिल्म को लेकर अब तक सबसे यादगार फीडबैक या कॉम्प्लीमेंट आपको क्या मिला है?
बहुत सारे मिले। …मुझसे पहले आमिर खान प्रोडक्शंस प्रकाश आमटे जी के पास पहुंच गया था। उन्हें ये अंदाजा हो गया था कि कहीं न कहीं ये कहानी विश्व को प्रेरणा दे सकती है। मैं वहां प्रकाश आमटे जी के साथ रही 15-20 दिन। मैंने कहा, मुझे आपकी जिंदगी पर फिल्म बनानी है। उन्होंने इसके अधिकार आमिर खान जी को दिए नहीं थे, लेकिन वो सारे काग़जात वहां पड़े हुए थे। मैं सोच रही थी कि नतीजा जो भी होगा, कोई बात नहीं, क्योंकि कोई बना तो रहा है। तब मुझे अपनी पहली फिल्म के लिए दो नेशनल अवॉर्ड मिल चुके थे। ऐसे में दर्शकों को ज्यादा उम्मीदें थीं। मेरी भी इच्छा थी कि इस बार फिर किसी सामाजिक विषय पर काम करूं। दूसरी फिल्म में भी मैं समाज को कुछ लौटाऊं। इसी उधेड़-बुन में मैंने कहा, “भाऊ (प्रकाश जी को मैं इसी नाम से बुलाती हूं), कोई बात नहीं, कोई तो बना रहा है”। वे ऐसे इंसान हैं जो ज्यादा बोलते नहीं हैं, बस कोने में चुपचाप काम करते रहते हैं। लेकिन अगर सही मायनों में देखें तो इतना विशाल काम है। शेर, चीते यूं पालना कोई खाने का काम नहीं है। पर वे करते हैं। उसमें भी उन्हें सरकार की मदद नहीं है। तो मन में था कि मैं कुछ करूं। मैं सोच रही थी कि आमिर खान बैनर के लोग करेंगे तो भी ठीक। बड़े स्तर पर ही करेंगे।

Dr. Mandakini, Samruddhi & Prakash Amte
भाऊ पर 11 किताबें लिखी जा चुकी हैं, मैं सब पढ़कर गई थी। मैं जब वहां रही तो उनसे पूछती रहती थी कि ये क्या है? वो क्या है? ये कब हुआ? वो कब हुआ? इन सारे सवालों के जवाब वे देते चले जाते थे। सुबह 5 बजे हम घूमने जाते थे। साथ में शेर होता था, मंदाकिनी भाभी होती थीं। जो-जो वे करते थे, मैं करती थी। कुछ दिन बाद मैं मुंबई आ गई। सात दिन बाद में उन्होंने ई-मेल पर अपनी बायोपिक के पूरे एक्सक्लूसिव राइट्स मुझे मेल कर दिए। सारी भाषाओं के। उन्होंने कहा कि “जब समृद्धि हमारे साथ 15-20 दिन रही तो हमें लगा कि 40 साल से जो काम हम कर रहे हैं, उसे वो जी रही थी। हमें लगा कि वो बहुत योग्य लड़की है और हमारे काम को सही से जाहिर कर सकती है”। तो भगवान के इस आशीर्वाद के साथ मेरी जो शुरुआत हुई वो अच्छा कॉम्प्लीमेंट लगा।

फिल्म बनने के बाद भी कई लोगों ने सराहा। अभी मैं स्क्रीनिंग के लिए कैनेडा के मॉन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल गई थी जहां फोकस ऑन वर्ल्ड सिनेमा सेक्शन में पूरे विश्व की 60 फिल्में दिखाई गईं। उनमें अपनी फिल्म ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ चुनी गई थी। भारत से ये सिर्फ एक ही फिल्म थी। और जिन-जिन की फिल्में वहां थीं, उन मुल्कों के झंडे लगाए गए थे। तिरंगा मेरे कारण वहां लहरा पाया, ये आंखों में पानी लाने वाला पल था। लंदन में थे तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने नानाजी और मुझे खास न्यौता दिया कि एक प्रेरणादायक व्यक्ति पर फिल्म बनाई है। ये सब यादगार पल हैं लेकिन जो मुझे सबसे ज्यादा बढ़िया लगा वो ये कि फिल्म बनने के बाद सिंगापुर में मैंने प्रकाश आमटे जी को पहली बार दिखाई। फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही उनकी एक आंख रो रही थी और होठ हंस रहे थे। मैं पीछे बैठी थी, मोहन अगाशे मेरे साथ थे। उनका हाथ कस कर पकड़ रखा था क्योंकि मैं बहुत नर्वस थी। जिन पर मैंने फिल्म बनाई उन्हें ही अपने साथ बैठाकर फिल्म दिखा रही हूं, ये मेरी लाइफ का बड़ा अद्भुत पल था। फिल्म पूरी होने के बाद वे बहुत रो रहे थे क्योंकि उन्हें बाबा आमटे, अपना बचपन और बिछड़े हुए लोग जो चले गए हैं, वो सब दिख रहा था। उनकी खासियत ये है कि वे सब पर विश्वास करते हैं। चाहे सांप हो या अजगर। तो फिल्म बनाने के प्रोसेस में उन्होंने मुझे कभी नहीं टोका। उन्होंने मुझ पर जो विश्वास किया था मुझे लग रहा था कि क्या मैं उसे पूरा कर पाई हूं।

स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, उन्होंने मुझे एक ही वाक्य कहा, “तुमने क्या मेरे बचपन से कैमरा ऑन रखा था क्या? इतनी सारी चीजें तुम्हें कैसे पता चली? क्योंकि मैंने किसी को बताई नहीं”। मुझे ये सबसे बड़ा और उच्च कॉम्प्लीमेंट लगा। उसके बाद मुझे कोई भी अवॉर्ड उससे छोटा ही लगता है।

फिल्म के आपने नाम दो रखे, मराठी और हिंदी संस्करणों के लिए, उसकी वजह क्या थी? जैसे ‘हेमलकसा’ है, मुझे लगता है ये दोनों वर्जन के लिए पर्याप्त हो सकता था। ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ भी दोनों में चल सकता था।
बहुत ही बढ़िया क्वेश्चन पूछा आपने। कारण है। दरअसल प्रकाश आमटे जी का साहित्य मराठी में बहुत प्रसिद्ध है। देश के बाहर भी, लेकिन बाकी महाराष्ट्र और भारत में उनके बारे में ज्यादा नहीं पता है। लोग मेरे मुंह के सामने उन्हें बाबा आमटे कहते हैं। कहते हैं कि ये फिल्म बाबा आमटे पर बनाई है। बाबा आमटे ने कुष्ठ रोग से पीड़ितों के लिए बहुत व्यापक काम किया। प्रकाश जी उन्हीं के असर में पले-बढ़े और उसके बाद उन्होंने वहां एक माडिया गोंड आदिवासी समुदाय है जिसके लोग कपड़े पहनना भी नहीं जानते, उनके बीच काम किया। उनकी वाइफ मंदाकिनी सिर्फ अपने पति का सपना पूरा करने के लिए इस काम में उनके साथ लगीं, जबकि इसमें उनका खुद का कुछ नहीं था। दोनों के बीच एक अनूठी लव स्टोरी भी रही। जिस इलाके में उन्होंने काम किया वो नक्सलवाद से भरा है। वहां काम करना ही बड़ी चुनौती है। मैं भी बंदूक की नोक पर वहां रही। अब तो वे हमें जानने लगे हैं। ऐसे इलाके में जान की परवाह न करते हुए प्रकाश जी काम करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वहां के लोगों के बच्चे बंदूक थाम लेते हैं तो पीछे लौटने का रास्ता नहीं बचता। लेकिन प्रकाश जी ने इसे भी झुठलाया है। उन्होंने इन बच्चों को इंजीनियर-डॉक्टर बना दिया है। आज कोई न्यू यॉर्क में काम कर रहा है, कोई जापान में काम कर रहा है, कोई जर्मनी में। ये ऐसे बच्चे थे जिन्हें कोई भाषा ही नहीं आती थी। उन बच्चों को लेकर पेड़ के नीचे उन्होंने स्कूल शुरू किया था, आज वो जापान जैसे मुल्कों में बड़े पदों पर हैं।

तो ये इतनी विशाल कहानी थी। पहले तो मुझे हिंदी में ये कहानी समझानी थी। मराठी में प्रकाश जी को चाहने वाले लोग हैं, तो वहां पर मुझे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे के सिवा कोई और नाम नहीं रखना था। लोग इंटरनेशनली गूगल करते हैं और प्रकाश जी का नाम डालते हैं तो जानकारी आ जाती है। पूना, कोल्हापुर, शोलापुर में उन्हें सब नाम से जानते हैं। वहां लोग अपने बच्चों को उन पर लिखी कहानियों की किताब लाकर देते हैं। मुझे पता था मराठी में उनके नाम में ही वैल्यू है। लेकिन हिंदी के लिए मुझे लगा कि एक सामाजिक पिक्चर है वो कहीं बह न जाए। हेमलकसा क्या है? लोगों को पता ही नहीं है। उसका अर्थ क्या है? वहीं से जिज्ञासा पैदा हो जाती है। कि नाना पाटेकर इस फिल्म में काम कर रहे हैं, पोस्टर में शेर के साथ दिख रहे हैं लेकिन ये हेमलकसा क्या है? इसका अर्थ क्या है? ये जानने के लिए लोग खुद ढूंढ़ेंगे।

हेमलकसा ऐसी जगह है जो बहुत साल तक भारत के नक्शे पर ही नहीं थी। नक्सलवाद के बड़े केंद्रों में से एक था। कई स्टेट पहले मना करते थे कि ये हमें हमारे दायरे में नहीं चाहिए। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बिलकुल किनारे पर हेमलकसा है। वहां जाने के लिए 27 नदियां पार करनी पड़ती हैं। वहां तीन नदियों का संगम है। भारत में नदियों के संगम पर ऐसी कोई जगह नहीं जहां मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा नहीं हो, लेकिन वहां पर प्रकाश आमटे जी ने होने ही नहीं दिया। वो ईश्वर सृष्टि को मानते हैं। तो मैं हेमलकसा से कहानी को जोड़ना चाहती थी। प्रकाश आमटे बोलो तो लोग सिर्फ सामाजिक कार्यों का सोचकर भूल जाते हैं। लेकिन मुझे ज्यादा से ज्यादा लोगों से हेमलकसा का परिचय करवाना था। कि इसका मतलब क्या है, ये कहां है।

ये सवाल मुझे बहुत महत्वपूर्ण तो नहीं लगता है लेकिन हर बार पूछना चाहता हूं कि सार्थक और छोटे बजट की फिल्में जब रिलीज होती हैं तो उनका सामना बॉलीवुड की करोड़ों की लागत वाली फिल्मों से होता है। क्या ऐसी फिल्मों से आपको कोई चुनौती महसूस होती है? आपका ध्यान किस बात पर होता है?
बराबर है कि लोग करोड़ों की फिल्में बनाते हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना होता है। लेकिन मुझे वैसी नहीं बनानी, पहले से ही स्पष्ट है। मेरा इस फिल्म को बनाने का पहला कारण ये था कि मुझे प्रकाश आमटे जी की कहानी में एक फिल्म की कहानी नजर आई। उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है। हर आदमी कहता कि जो आप दिखा रहे हो वो सच में है क्या। विदेशों में स्क्रीनिंग के दौरान मुझसे बार-बार लोगों ने पूछा है। कि क्या ऐसा आदमी सच में है। मैं कहती हूं वे अभी भी जिंदा हैं। आप जाइए हेमलकसा और देखिए कैसे शेरों और भालुओं के साथ प्रकाश आमटे जी खेल रहे हैं। हम लोग जब उन जानवरों के पास जाते हैं तो वो नाखुन निकालते हैं, लेकिन उनको कुछ नहीं कहते है। क्योंकि कहीं न कहीं बॉन्डिंग है आपस में। तो ये अद्भुत कहानी है। आज भी घट रही है और लोगों को पता नहीं है। अब आपका सवाल, तो मुझे दुख नहीं होता बड़ी फिल्मों से मुकाबला करके। मेरी पहली फिल्म ने 37 अवॉर्ड जीते थे। दुनिया घूम ली। ये फिल्म भी अब तक 17 इंटरनेशनल अवॉर्ड जीत चुकी है। मॉन्ट्रियल जैसे बड़े फिल्म महोत्सवों में इसका प्रीमियर हुआ है। शिकागो फिल्म फेस्टिवल से बुलावा आया। यंग जेनरेशन के लोग ये फिल्म देखते हैं तो सुन्न हो जाते हैं, थोड़ी देर मुझसे बात नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बेकार जीवन जी रहे हैं। जैसे, सिंगापुर।

वहां हमारा शो होना था। चूंकि फिल्म का नाम ऐसा था और उसमें कोई इंटरनेशनल स्टार नहीं था तो टिकट बिक नहीं रही थी। सब इंग्लिश फिल्म देखने वाले बच्चे हैं। स्क्रीनिंग से पहले कुछ सीटें खाली पड़ी थीं तो हमारे आयोजक ने कुछ अनिच्छुक युवाओं को भी बुला लिया। वो बैठ गए। फिल्म पूरी होने के बाद सेशन के दौरान वो लड़के कोने में खड़े रहे। उनके बदन में टैटू वगैरह थे और वेस्टर्न फैशन वाले अजीब कपड़े पहन रखे थे। वे खड़े रहे ताकि समय मिलने पर बात कर सकें। जब मिले तो एकदम गिल्टी फील के साथ जैसे कोई गुनाह कर दिया हो, “हम आना नहीं चाहते थे पहले तो। जबरदस्ती ही आए थे। अब लग रहा है कि हम बहुत फालतू जिए हैं आज तक। हम इंडिया से यहां आकर बस गए हैं। बहुत पैसे कमा रहे हैं। डॉलर घर भी भेज रहे हैं। हमें लगता था कि हम सक्सेसफुल हैं, पर अब लगता है जीरो हैं। ये आदमी (प्रकाश आम्टे) तो जांघिया-बनियान पहनकर भी सबसे बड़ा विनर है दुनिया का। हम तो बड़ी गाड़ियों, चमक-धमक और दुनिया घूमने को ही अपनी उपलब्धि मान रहे थे”। वे लड़के पूरी तरह सुन्न हो गए थे। उनका कहना था कि “हमें कुछ तो अब करना है”। वे आदिवासियों के बीच आकर रुकना वगैरह तो कर नहीं सकते थे तो बोले कि “एक मेहरबानी करें, हम साल में एक बार कॉन्सर्ट करते हैं, ये उसके पैसे हैं, ये प्रकाश जी को दे दें। ये हमारा एक छोटा सा योगदान हो जाएगा। आप काम कर रहे हैं, करते रहें, हमसे सिर्फ पैसे ले लें”।

लोगों की जिदंगी में ऐसे-ऐसे छोटे बदलाव भी आ जाएं तो मुझे लगता है वो मेरा सबसे बड़ा अवॉर्ड होगा। शाहरुख खान की फिल्म करोड़ों कमा रही है तो मुझे वो नहीं चाहिए। मेरी सिर्फ एक चाह है कि मेरा मैसेज लोगों तक पहुंचे। पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचे। समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं। उनका संदेश लोगों तक पहुंचा सकूं तो मेरा जीवन भी सार्थक होगा।

प्रकाश जी का जीवन इस फिल्म में है, वैसे ही क्या बाबा आमटे और विकास आमटे की कहानी भी इसमें है?
Baba Amte & Prakash
पूरा आमटे परिवार ही सामाजिक कार्यों में जुटा है। हम लोग एक महीने की तनख्वाह भी किसी को नहीं दे सकते, किसी की सेवा नहीं कर सकते। मैं भी अगर जीवन के इस मुकाम पर सोचूं कि रास्ते के रोगी का घर लाकर इलाज करूं तो नहीं कर सकती। लेकिन बाबा आमटे ने वो काम किया है। वो भी अलग-अलग इतनी बड़ी कहानियां हैं कि एक फिल्म में सबको नहीं कहा जा सकता है। उनमें से मैंने प्रकाश जी की ही बायोपिक बनाई है अभी। उनके जीवन में पिता का जितना रोल होना चाहिए, भाई का जितना रोल होना चाहिए, मां का जितना रोल होना चाहिए, और बच्चों का, अभी उतना ही लिया है मैंने।

आपने नाना पाटेकर को प्रकाश जी के मैनरिज्म या अंदाज को लेकर ब्रीफ किया या सब उन्हीं पर छोड़ दिया? जैसे फिल्म में एक दृश्य है जहां वे प्रकाश आमटे जी के किरदार में आगंतुकों के सामने अपने प्रिय तेंदुओं व जंतुओं के साथ खेल रहे होते हैं।
नहीं, नहीं, नाना जी को एक्टिंग सिखाने वाला कोई पैदा नहीं हुआ है। प्रकाश आमटे और नाना बहुत सालों से एक-दूसरे को जानते हैं। बाबा आमटे के तीसरे बेटे के तौर पर नाना बड़े हुए हैं। वे तब से उस परिवार का हिस्सा हैं जब वे बतौर एक्टर कुछ भी नहीं थे। उसका फायदा मुझे फिल्म में मिला। इसके अलावा उनके जंतुआलय में जो प्राणि हैं वो अब नए हैं, तो उनके साथ काम करना था। हम लोग शूट से एक महीना पहले ही वहां चले गए थे। नाना जी ने बहुत मेहनत की। मैंने जो-जो स्क्रिप्ट में उनके किरदार के बारे में लिखा था, उन्होंने किया। जैसे, मैंने एक जगह लिखा था कि जब वे शेर के साथ नदी में नहाते हैं तो लौटते हुए उनके बदन पर टैनिंग का दाग दिखता है। तो वो टैनिंग का दाग मुझे चाहिए थे। उसके लिए भी नाना जी ने धूप में जल-जल के टैनिंग की। ऐसे बहुत सारे दृश्य और जरूरतें थीं। मेरे मन में थी। जब-जब मैंने उसे शेयर की, उन्होंने वो किया। जब तक मेरा मन संतुष्ट नहीं होता था, वे उतनी बार रीटेक्स करवाते थे। प्राणियों के साथ भी उन्होंने काफी वक्त बिताया, उन्हें खाना खिलाया, उनके साथ खेले। थोड़े बहुत शेर के नाखुन भी उन्हें लगे। पेट पर लगे, पीठ पर लगे। उनसे रिकवर होने के बाद उन्होंने फिर प्राणियों से दोस्ती बनाई। फिल्म में अगर वो शेर और तेंदुए के साथ इतने सहज दिख रहे हैं वो इसलिए कि उनकी दोस्ती पहले से ही हो चुकी है।

फिल्ममेकर क्यों बनीं? इतना जज़्बा इस पेशे को लेकर क्यों था?
मैं ये कहना चाहूंगी कि फिल्ममेकर बना नहीं जाता, फिल्ममेकर के तौर पर ही पैदा होते हैं। क्योंकि मैं वैसे पेशे से तो, आपको पता होगा, हाई कोर्ट (बॉम्बे हाई कोर्ट) में वकील हूं। मैं सरोगेट मदर विषय पर केस भी लड़ रही थी। कि कितना बड़ा कारोबार चल रहा है भारत में इस पर। जो पूरा स्कैंडल था। एक वकील के तौर पर मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी क्योंकि एग्रीमेंट हो चुका था दोनों मांओं में। मैंने देखा कि जो सरोगेट मदर्स यहां से भाड़े पर लेती हैं यूरोपियन लेडीज़ वो इसलिए क्योंकि अपना वजन खराब नहीं करना चाहतीं। 2002 में हमारे यहां कायदा बना। उससे सरोगेट मदर्स गैर-कानूनी नहीं है पर उनके लिए फायदेमंद भी नहीं है। पता चला कि ब्रोकर्स बहुत बीच में आ गए हैं। जितनी भी भारतीय महिलाएं अपनी कोख भाड़े पर देती थीं उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था। उनसे कहीं भी अंगूठा लगवा लिया जाता था। वो पैसे की मजबूरी में या बच्चे पालने के लिए इस ट्रेड में शामिल हो जाती थीं। कहीं भी अंगूठा लगा रही हैं, पता नहीं कितना जीरो लगता है, कितना लाख मिलता है? अभी एक प्रेगनेंसी के पीछे 10 से 12 लाख भाव चल रहा है भाड़े की कोख का। मैंने ब्रोकर्स को देखा है कि 9 लाख प्लस रखकर एक लाख उस लेडी को प्रेगनेंसी के नौ महीनों के बाद देते हैं। ये सब बहुत इमोशनल था। औरतें नौ महीने के बाद बच्चा हाथ में आता तो दूध पिलाती थीं और फिर कहती कि पैसा नहीं चाहिए बच्चा मेरा है। होता है न। गोरा बच्चा लेकर भाग गई। ये सारा कुछ इमोशनली इतना अजीब था कि मुझे लगा कहीं न कही फिल्म बनानी चाहिए। उस कहानी के साथ आगे बढ़ने के लिए मैंने खुद को फिल्ममेकिंग क्लास में डाला। फिल्ममेकिंग सीखी मुंबई यूनिवर्सिटी से। वहां मैंने एक छोटी फिल्म बनाई जो पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई थी। मुझे भरोसा हुआ कि मैं फिल्म बना सकती हूं। ये सबसे प्रभावी माध्यम है कहानियां कहने का तो इनके जरिए समाज के लिए कुछ कर सकूं तो सबसे बढ़िया रहेगा। क्योंकि सारे लोग सिर्फ बोलते हैं। मुझे लगा चित्र के साथ बोलो तो लोग सुनते हैं।

आपके बचपन के फिल्मी इनफ्लूएंस क्या-क्या रहे? कहानियों के लिहाज से असर क्या-क्या रहे?
रोचक बात है कि मुझे खुद को भी नहीं पता। अभी मैं सोचूं कि कब से आया होगा ये सब? एक तो मेरी मम्मी बहुत पढ़ती थी। ऐतिहासिक पात्र व अन्य। वो पढ़ने के बाद रोज दोपहर को या सोते समय मुझे व मेरे छोटे भाई को कहानी बताती थी। उनके बताने का स्टाइल ऐसा था कि आंखों के सामने चित्र बन जाते थे। उन्हें मैं विजुअलाइज कर पाती थी। दूसरा, फिल्में बहुत कम देखने को मिलती थी। तुकाराम महाराज वाली या बच्चों वाली ही देखने को मिलती थी। धीरे-धीरे मम्मी-पापा के पीछे लगकर फिल्म देखना शुरू कर दिया। फिर मेरी जो चार-पांच दोस्त थीं, उन्हें बोलती थी कि तुम्हे फिल्म बताऊं कि कहानी बताऊं? अगर फिल्म बतानी है तो मैं सीनवाइज़ बताती थी कि वो ब्लैक कलर की ऊंची ऐड़ी की सैंडल पहनकर आती है और हाथ में कप होता है जिसमें पर्पल कलर के फूल होते हैं.. वही कप पिक्चर में भी होता था। मतलब पूरी की पूरी फिल्म इतनी बारीकी से ऑब्जर्व होती थी फिर दो-चार लड़कियों से आठ लड़कियां मेरी कहानी सुनने आती, फिर दस, फिर बारह, फिर सारा मुहल्ला। फिर धीरे-धीरे ये होने लग गया कि डायेक्टर का सीन कुछ और होता था और मुझे लगता था कि ये सीन ऐसा होता तो ठीक होता, ऐसी कहानी होती तो और अच्छी लगती। तो उन कहानियों में मैंने अपने इनपुट डालने शुरू कर दिए। अगर गलती से किसी ने देख ली होती फिल्म, तो कहती कि अरे ये तो कुछ और ही बता रही है। अगर 8-10 लड़कियों को कहानी में इंट्रेस्ट आने लग जाता था तो उस बेचारी को बाहर निकाल देती थी कि तेरे को नहीं सुनना तो तू जा, हमें सुनने दे। मुझे लगा कि तब से ये आ गया।

लेकिन शुरू में इस तरह आने का इरादा इसलिए नहीं बना क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था कि जो लड़के फिल्म देखने जाते हैं वो बिगड़े हुए हैं। फिल्म क्षेत्र शिक्षा का हिस्सा नहीं माना जाता था। कोई प्रोत्साहन नहीं था। तो मैंने बीएससी माइक्रो किया, लॉ की पढ़ाई की, कुछ दिन गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में काम भी किया, 15 साल प्रैक्टिस की। इन सबके बीच में लिखती रही। लिख-लिख के रख दिया। आज मेरे पास दस फिल्मों की कहानियां और तैयार हैं। इस बीच सरोगेसी वाला केस आया। इसी दौरान मैंने मराठी फिल्म ‘श्वास’ की टीम के साथ लीगल एडवाजर के तौर पर काम किया। तो एक-दो महीना उनकी मीटिंग्स में जाकर मैंने और मन पक्का कर लिया। घंटों निकल जाते थे लेकिन मैं बोर नहीं होती थी। तब मन इस तरफ पूरी तरह झुक गया।

'श्वास' का आपने जिक्र किया। अभी अगर क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो मराठी में बेहद प्रासंगिक फिल्में बन रही हैं। यहां के समाज में ऐसा क्या है कि सार्थक सिनेमा नियमित रूप से आता रहता है?
यहां साहित्य बहुत है। घर में बच्चों में पढ़ने का संस्कार डाला जाता है। जैसे बंगाल में रविंद्रनाथ टैगोर का है। मुझे लगता है कि आपके बचपन से ही ये मूल रूप से आ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई हैं, शिवाजी महाराज हैं, विनोबा भावे हैं, गांधी जी हैं, इन सबकी कहानियां स्कूली किताबों में भी होती हैं। परवरिश में वही आ जाता है। इन कहानियों से मन में भाव रहता है कि समाज के प्रति आपका कोई ऋण है और वो आपको चुकाना है।

आपने कहा कुछ कहानियां आपकी तैयार हैं। कैसे विषय हैं जिनमें आपकी रुचि जागती है? जिन पर भविष्य में फिल्में बना सकती हैं?
जैसे सात रंग में इंद्रधनुष बनता है, वैसे ही मुझे सातों रंगों की फिल्में बनानी हैं। मुझे कॉमेडी बनानी है, हॉरर बनानी है, लव स्टोरी बनानी है... लेकिन सब में कुछ ऐसा होगा कि तुम्हारी-मेरी कहानी लगेगी। ऐसा नहीं लगेगा कि तीसरी दुनिया की कोई चीज है। फिल्में ऐसी बनाऊं जो बोरियत भरी भी न हों। पर उनमें सार्थकता होती है। असल जिंदगी में लोग मुझसे रोज मदद मांगते हैं तो लगता है कहीं न कहीं मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि लोगों के काम आ पा रही हूं। वो आते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पूरा कर सकती है। कोई आपको मानता है ये बहुत बड़ा सम्मान है। मुझे लगता है सामाजिक फिल्में बनाने के कारण लोगों का मेरी ओर देखने का नजरिया ऐसा हो गया है। तो मैं उसे भी कम नहीं होने देना चाहती। एंटरटेनमेंट के क्षेत्र में हूं तो मनोरंजन तो करना ही चाहिए लेकिन इसके साथ आपको कुछ (संदेश) दे भी सकूं तो वो मेरी उपलब्धि है।

दुनिया में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं?
मैं ईरानियन फिल्मों की बहुत मुरीद हूं। माजिद मजीदी की कोई भी फिल्म मैंने छोड़ी नहीं है। उनकी फिल्में सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं मुझे।

भारत में कौन हैं? सत्यजीत रे, बिमल रॉय, वी. शांताराम?
जी। मैंने सभी फिल्में तो इनकी नहीं देखी हैं लेकिन वी. शांताराम जी की ‘दो आंखें बारह हाथ’ बहुत अच्छी है। इतने साल पहले, ब्लैक एंड वाइट के दौर में, ऐसा सब्जेक्ट लेकर बनाना, हैट्स ऑफ है। बारह कैदियों को लेकर, एक लड़की, मतलब सारी चीजें हैं। कैसे वो आदमी सोच सकता है। उस जमाने में। जब सिर्फ रामलीला और ये सारी चीजें चलती थीं।

आप इतने फिल्म फेस्टिवल्स में गई हैं। वहां दुनिया भर से आप जैसे ही युवा व कुशल फिल्मकार आते हैं। उनकी फिल्मों, विषयों और स्टाइल को लेकर अनुभव कैसा रहा? उनका रिएक्शन कैसा रहा?
सबसे पहले तो बहुत गर्व महसूस होता है कि मराठी फिल्ममेकर बोलते ही लोगों के देखने का नजरिया बदल जाता है। क्योंकि देश से बाहर क्या है, बॉलीवुड, बस बॉलीवुड और बॉलीवुड मतलब सपने ही सपने। फिल्म फेस्टिवल्स में जाकर कहती हूं कि मराठी फिल्ममेकर हूं तो उनके जेहन में आता है कि तब कुछ तो अलग सब्जेक्ट लेकर आई होगी। अन्य देशों के फिल्ममेकर्स की फिल्में देखकर लगता है कि टेक्नीकली वे बहुत मजबूत हैं। बाहरी मुल्कों में यंगस्टर्स इतनी नई सोच लेकर आते हैं, समझौता जैसे शब्द वे नहीं जानते कि भई काम चला लो। नहीं। वे बहुत प्रिपेयर्ड होते हैं, उनका टीम वर्क दिखता है। यही लगता है कि हमारे पास इतने ज्यादा आइडिया और कहानी होती हैं लेकिन हम टेक्नीक में कम पड़ जाते हैं। बजट की दिक्कत होती है। ये सब हल हो जाएगा तो न जाने हिंदुस्तानी फिल्में क्या करेंगी।

और एक बहुत जरूरी बात मुझे कहनी है कि जब हम भारत से बाहर जाते हैं तो एक होता है कि फिल्मों से आपके देश का चित्र तैयार हो जाता है लोगों के मन में। तब बाहर ‘डेल्ही बैली’ या ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, कोई फिल्म लगी थी। उसे सभी ने देखा। उसमें मुझे लगा कि अतिशयोक्ति की गई। जैसे पोट्टी में वो बच्चा भीग गया, ऐसे कहीं नहीं होता है हमारे यहां। ठीक है, गरीबी है हमारे यहां पे, पर ऐसा नहीं होता है। वे गलत दिखा रहे हैं और कैश कर रहा है बाहर का आदमी। ये मुझे अच्छा नहीं लगा। ये हमारी जिम्मेदारी है। जैसे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे जिन्होंने भी देखी है, उन्हें लगा है कि एक पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा भी हो सकता है। हमारे देश का ये इम्प्रेशन कितना अच्छा जाता है। जबकि उन फिल्मों में किरदार और युवा इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल कर रहा है। इससे बाहर के लोगों व दर्शकों में चित्रण जाता है कि भारत में आज का युवा ऐसा है। मुझे लगता है कि ये हम फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

गुजरे दौर की या आज की किन महिला फिल्ममेकर के काम का आप बहुत सम्मान करती हैं?
मुझे लगता है कि स्त्री भगवान ने बहुत ही प्यारी चीज बनाई है। वो क्रिएटर है। दुनिया बना सकती है। आपको जन्म देने वाली मां है, जननी है। वो सुंदर है। मन से सुंदर है, तन से सुंदर है। वो जो करती है अच्छा। मुझे लगता है कि इंडिया में जितनी भी लेडी फिल्ममेकर्स हैं वो कुछ नया लेकर आती हैं। कुछ सुंदरता है उनके काम में। पहले की बात करूं तो मैंने सईं परांजपे की फिल्में देखी हैं। बहुत सारी महिला फिल्मकार हैं जिनमें मैं बराबर पसंद करती हूं। सुमित्रा भावे हैं। नंदिता दास भी कुछ अलग बनाती हैं। दीपा मेहता हैं। इनमें मैं खुद को भी शामिल करती हूं।

‘हेमलकसा’ बनाने के बाद आपकी निजी जिंदगी में क्या बदलाव आया है? क्या व्यापक असर पड़ा है?
बहुत फर्क पड़ा है। मैंने 6 बच्चे गोद लिए हैं। मेरी खुद की दो बेटियां हैं। उन 6 बच्चों को घर पर नहीं लाई हूं पर पढ़ा रही हूं। बहुत से लोगों को प्रेरित किया है कि आप बच्चों की एजुकेशन की जिम्मेदारी ले लो, पैसा देना काफी नहीं है। मैं इन बच्चों को प्रोत्साहित करती हूं। बच्चों को जब दिखा कि कोई हम पर ध्यान दे रहा है, डांट रहा है, पढ़ाई का पूछ रहा है तो उनमें इतना बदलाव आया है। आप ईमारतें बना लो, कुछ और बना लो लेकिन बच्चों को अच्छा नागरिक बनाओ तो बात है। उन्हें बनाना नए भारत का निर्माण हैं। इन छह बच्चों में से कोई आकर कहता है कि मुझे मैथ्स नहीं पढ़नी है, मुझे फुटबॉल खेलना है। उस आत्मीयता में जो आनंद है वो मैं बता नहीं सकती। मेरी लाइफ में विशाल परिवर्तन हो गया है।

छोटा सा आखिरी सवाल पूछूंगा, आपकी जिदंगी का फलसफा क्या है? निराश होती हैं तो खुद से क्या जुमला कहती हैं?
कोई भी प्रॉब्लम ऐसी नहीं है जिसका सॉल्यूशन न हो। विचलित न हों। मेरी जिंदगी का एक बड़ा उसूल है कि मैं बड़ा फोकस नहीं करती हूं। मेरा ये फोकस नहीं है कि राष्ट्रपति के पास जाकर आना है। मैं छोटे-छोटे गोल तय करती हूं। वो एक-एक करके पाती जाती हूं। इसके बीच कुछ भी हो तो शो मस्ट गो ऑन। छोटी-छोटी चीजें हैं, सुबह ड्राइवर नहीं आया तो खुद गाड़ी चला हो। बाई नहीं आई तो चलो ठीक है, आज ब्रेड खा लो। कोई बड़ी मुश्किल नहीं होती। ये छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम बड़ा बनाते हैं। दूसरा, मेरी डायल टोन भी है, “आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो”। जीभर जिओ। खुद भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो।

Samruddhi Porey is a young Indian filmmaker. She is a practicing lawyer in Mumbai High court as well. Her first film 'Mala Aai Vhaychhy' won the National Award for Best Marathi Film. Now her second movie 'Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte - The Real Hero' is releasing on October 10. This film is based on Dr. Prakash Baba Amte, a renowned social worker and enviornmentalist from Maharashtra in India. Prakash and his wife Dr. Mandakini Amte has been presented the Ramon Magsaysay Award for community leadership, a few years back. Amte family is an inspiration for people across India and around the world. Nana Patekar and Sonali Kulkarni has played the lead roles in the movie.
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