बुधवार, 25 अप्रैल 2012

एक सीमेंट टायकून और उससे बदला लेने के लिए जर्नलिस्ट से दिल्ली की नंबर वन रां* बनी काव्या कृष्णा की कुछ जरूरी सी मगर अपूर्ण फिल्म

फिल्मः हेट स्टोरी
निर्देशकः विवेक अग्निहोत्री
कास्टः गुलशन देवय्या, पाओली दाम, निखिल द्विवेदी
स्टारः डेढ़, 1.5
याद नहीं, पिछली बार कब ऐसी नॉन-फैमिली फिल्म देखी थी, जिसकी शुरुआत देवी-देवता (यहां गणेश जी) की मूर्ति, अगरबत्ती के धुएं और 'वक्रतुंड महाकाय’ के उच्चारण के साथ हुई होगी। क्योंकि डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की ए सर्टिफिकेट वाली 'हेट स्टोरी’ फैमिली और बच्चों के लिए कतई नहीं है। बाकियों के लिए भी थियेटर जाकर देखने लायक कुछ नहीं है। बेहद शानदार एक्टर गुलशन देवय्या ('देट गर्ल इन येलो बूट्स’ के धाकड़ किरदार चितयप्पा गौड़ा) फिल्म की एकमात्र देखने लायक चीज हैं। गुलशन यहां अन्यथा चुस्त पर्सनैलिटी वाले बिजनेसमैन सिद्धार्थ धनराजगीर बने हैं, जो पिता के सामने बहुत ज्यादा हकलाने लगते हैं। उनका हकलाना चाहे फिल्म में बेहद सांकेतिक और संदर्भात्मक वजहों से रखा गया हो, पर अंतत: फिजूल लगता है। गुलशन अपने किरदार को काफी कुछ देते हैं, पर 'चॉकलेट’ और 'दन दना दन गोल’ जैसी फिल्म बना चुके विवेक उसे ठीक दिशा नहीं दे पाते।

फिल्म की बेहतरीन और काम की चीज है बिजनेस की भीतरी दुनिया का गणित। एक सीमेंट कंपनी कैसे काम करती है? कैसे बिजनेस टायकून्स और उनके उत्तराधिकारी बच्चों का आपसी संवाद होता है? किस तरह राजनीति और गुंडों का पैसे के लिए यहां इस्तेमाल होता है? इस दुनिया में हाई प्रोफाइल वेश्याओं का रोल क्या होता है? (एक नामी वकील की मौजूदा से-क्-स सीडी का उदाहरण भी सामने है) ये भी कि दिल्ली से छत्तरपुर की ओर जाने वाले और दूजी किनारियों पर बने फार्म हाउसों में क्या-क्या होता है? इन सब चीजों को देखने के इच्छुक युवाओं के लिए फिल्म दर्शनीय है, श्रेयस्कर होगा डीवीडी पर देखना।

फिल्म में पाओली दाम काव्या कृष्णा नाम की ऐसी बिजनेस जर्नलिस्ट बनी हैं जो सिद्धार्थ (गुलशन दैवय्या) की कंपनी सीमेंटिक इन्फ्रा पर स्टिंग ऑपरेशन करती है। बदले में सिद्धार्थ उसे कॉफी पर बुलाता है और तीन-चार गुना ज्यादा सैलरी पर कंपनी में काम करने का ऑफर देता है। काव्या उसकी कंपनी में आ जाती है। पर काव्या का शारीरिक फायदा उठाने के बाद सिद्धार्थ उसे अपमानित कर बाहर निकालते हुए कहता है, 'आई फ* द पीपल, हू फ* विद मी’। टूट चुकी और छला महसूस कर रही काव्या को पता चलता है कि वह गर्भवती है। जब सिद्धार्थ को बताती है, तो वह उसे किडनैप करवाकर एनसीआर के किसी गांव में बने सरल नर्सिग होम में उसका गर्भपात तो करवाता ही है, साथ में उसे ताउम्र मां नहीं बन पाने लायक करवा देता है। अपने दोस्त विकी की मदद से मौत के मुंह से जिंदा लौटी काव्या सिद्धार्थ को बर्बाद करने की ठान लेती है। इसके लिए वह अपने जिस्म का इस्तेमाल करती है।

पाओली उन अभिनेत्रियों में से हैं जिन्होंने कपड़े त्यागकर बॉलीवुड में सफलता की सीढ़ी चढऩे का रास्ता चुना। उनका अभिनय ठीक-ठाक है पर नजरों में चढऩे लायक नहीं। हो सकता है वक्त के साथ बहुत सुधर जाए।

सिद्धार्थ द्वारा धक्के देकर बाहर निकाल दिए जाने के बाद फिल्म में वॉयस ऑफ इंडिया फेम हर्षित सक्सेना का बनाया गाना 'दिल, कांच सा, दिल, कांच सा, तोड़़ेया’ बजता रहता है। जो बड़ा मिसफिट लगता है। फिल्म में संदर्भ इंतकाम का चलना है और गाना चल रहा है प्यार में धोखा खाई प्रेमिका के लिए, जबकि उनमें प्यार तो कभी हुआ ही नहीं।

निखिल द्विवेदी को फिजूल खर्च किया गया है। क्लाइमैक्स में जामा मस्जिद के पास पुरानी दिल्ली की छतों और परांठे वाली गलियों से होकर भागने के अलावा उनके पास फिल्म में करने को कुछ भी नहीं था। निर्देशन के लिहाज से विवेक ने हो सकता है ईमानदार नीयत से व्यस्क दृश्यों को गढ़ा और प्रचारित भी किया हो, पर फिल्म का ढांचा कसा हुआ नहीं है। मैं आमतौर पर यह कहना पसंद नहीं करता कि फिल्म थोड़ी लंबी थी, पर यहां कहानी के कुछ घुमाव और दृश्य उसे लंबा बनाते हैं। कुछ बीस-पच्चीस मिनट छोटी कर देते तो फिर भी ठीक होता। एक अच्छी फिल्म नहीं बना पाने के बावजूद, इस विषय पर कोशिश करने के लिए विवेक अग्निहोत्री की हौसलाअफजाई।
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गजेंद्र सिंह भाटी