मंगलवार, 21 सितंबर 2010

दबंगः मनोरंजन और समाज पर उसके साइड इफेक्ट

'दबंग' रिलीज हुए करीब डेढ़ हफ्ता हो गया। हिंदी और क्षेत्रीय मीडिया ने फिल्म का खूब मजा लिया है। तो अंग्रेजी मीडिया दो-तीन स्टार से ज्यादा नहीं दे पाया। मैं दंबग पर इसकी संपूर्णता में बात करना चाहता था। मगर एक बार रिव्यू लिख चुकने के बाद अब कुछ वक्त तक इसकी दोबारा चीर-फाड़ करने की इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है कि दबंग में मनोरंजन के पहलू की तारीफ नहीं की जा सकती है। दरअसल निर्देशक अभिनव कश्यप से जब पहली बार बात हुई तो उनके जवाब देने के अंदाज से ही जाहिर हो गया था कि उन्होंने क्या बनाया होगा। उनसे जब दबंग के रिलीज होने की तारीख पूछी तो उनका जवाब एकदम ड्रमेटिक यानी नाटकीय था। शायद सुखद नाटकीय। मजा आया बिलाशक। वह ऐसे बोले जैसे कुछ दशक पहले तक तांगे पर बैठा वो शख़्स बोला करता था। गांवों-कस्बों की पगडंडियों में फटे हुए माइक के साथ, सभी को फिल्म के पोस्टर से लेकर हिरोइन के नाच और खूंखार डाकूओं के बारे में बताता।
...मगर ये तो हुआ निर्देशक का पक्ष जिसने सिर्फ और सिर्फ सीटियों का अकाल झेल रहे थियेटरों को नई सांसें देने वाला मनोरंजन बनाया है। मगर फिल्मों के समाज पर पड़ने वाले असर को छानने वाली छलनी लेकर देखें ..तो मजा नहीं आया। ये फिल्म हंसाने वाली दवा जरूर है, पर दीर्घकाल में इसके कई दूसरी फिल्मों की तरह साइड इफेक्ट हैं। अब दर्शक और फिल्म आलोचक इस साइड इफेक्ट को गंभीरता से लेते हैं, या अभिनव की सिर्फ मनोरंजन को दी गई प्रबलता को स्वीकारते हैं। चौपाल पर बैठकर करने लायक बात है।

अभी के लिए तो दबंग की कुछ कमियों पर बात कर रहा हूं। बड़ी व्यापक पब्लिसिटी जब होती देखते हैं, तो कई थोपी गई चीजों को आप अपनी ही सोच मानने लगते हैं, यहां भी कुछ ऐसा नहीं हो इसलिए कुछ एक बातों पर नजर डाल सकते हैं।

मैं एंटरटेनमेंट के मामले में कोई बात नहीं काटूंगा। बात सिनेमैटिक पहलुओं की है। फिल्म का धांसू और पहला फाइट सीन डायरेक्टर लुईस लेटेरिएर की फिल्म 'ट्रांसपोर्टर' से लिया गया है। फर्श पर तेल गिराकर जैसन स्टैथम के अंदाज में फाइट करने की कोशिश करते चुलबुल पांडे और कुछ गुंडे। इस सीन के कुछ पोर्शन एक आम चोरी हैं। दबंग के दूसरे फाइट सीन में कसर कंप्यूटर ग्राफिक्स की रह गई। चुलबुल मार रहे हैं, गुंडे छत से नीचे गिर रहे हैं और थोड़ा गौर करें तो नीचे का नकली आंगन देखा जा सकता है।

फिल्मों को लेकर एक बड़ी सीधी सी बात है। इनमें डायलॉग बिना लॉजिक के चल सकता है, मगर फिल्म का विजुअल नहीं। दबंग में एक्टिंग की बात करें। अरबाज और माही गिल का नदी किनारे वाला सीन आता है और थियेटर में बैठे दर्शक एक-दूसरे से बातें करने लगते हैं। क्यों? शायद इसलिए कि महत्वाकांक्षी मनोरंजन के बीच ये कुछ ढीला शॉट आ जाता है। इंटरवल तक अरबाज फिलर लगते हैं तो फिल्म में माही का रोल न के बराबर है। पुलिस इंस्पेक्टर ओम पुरी को अपनी बेटी की शादी सोनू से करनी है। पूरी फिल्म में नजर आते हैं लेकिन फिल्म के आख्रिर में वो 'चलो हनुमान जी लंका छोडऩे का वक्त आ गया है' .. बोलकर निकल लेते हैं। बिना खास संदर्भ वाले ओमपुरी के रोल को जाया ही किया गया है। 'हमका पीनी है, पीनी है..' गाने पर मेहनत से कोरियोग्राफी हुई है। पर दारू की बरसात और बंदूक से उड़ती गोलियों से ये एक थाना नहीं, किसी बाहुबली या डाकू का अड्डा लगने लगता है। अब इस सीन पर आएं। अरबाज खान तिजोरी से चुलबुल के पैसे निकालकर ले जा रहे है, मां डिंपल रोकती हैं। यहां डिंपल का कमजोर अभिनय खटकता है। ना तो वे मैलोड्रमेटिक मां बन पाती हैं और ना ही 'क्रांतिवीर-दिल चाहता है' जैसी ट्रैडमार्क फिल्मों में की हुई अपनी एक्टिंग दोहरा पाती हैं।

फिल्म में 'साउथ-टैरेंटिनो-बॉलीवुड' का मिक्स मैड वर्ल्ड है फिर भी हर चीज का लॉजिक है। मगर देखिए महेश मांजरेकर यूपी के लालगंज में भी मुंबईया बोल रहे हैं। एक सीन में कहते हैं.. 'ए मेरे को दारू मांगता है...ए दारू की तो मां की आंख..।' शुरू में छेदी सिंह और चुलबुल पांडे के टकराव का सीन सा बनने लगता है, मगर फिर इंटरवल तक के लिए वो गायब सा हो जाता है।

कहानी और कैरेक्टर
लालगंज, उत्तरप्रदेश में पुलिस इंस्पेक्टर हैं चुलबुल पांडे (सलमान खान)। सही-गलत सभी काम करते हैं, पर पूरे टेढ़े और दबंग तरीके से। बचपन से सौतेले पिता प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) से उन्हें वो प्यार नहीं मिला जो छोटे भाई मक्खी (अरबाज खान) को मिला। मां (डिंपल कपाडिय़ा) समझाती हैं कि मक्खी थोड़ा कमजोर है इसलिए उसका ध्यान रखना पड़ता है। पर दर्शकों के लिहाज से एक्साइटेड तरीके से चुलबुल पांडे अपना गुस्सा भाई-पिता पर उतारते रहते हैं। मक्खी मास्टरजी (टीनू आनंद) की बेटी निर्मला (माही गिल) से प्रेम करता है, मगर मास्टरजी राजी नहीं हैं, क्योंकि उनके पास प्रजापति पांडे को देने के लिए दहेज नहीं है। यहां के लोकल नेता हैं दयाल बाबू (अनुपम खेर), जिनका खास आदमी है छेदी सिंह (सोनू सूद)। छेदी अखाड़े में पहलवानी करता है, अपने पर्सनल फोटोग्राफर से फोटो खिंचवाता है, एमएलए का टिकट चाहता है और आपकी-हमारी फिल्म का विलेन है। पियक्कड़ हरिया (महेश मांजरेकर) की सुंदर बेटी राजो (सोनाक्षी सिन्हा) मिट्टी के बर्तन बनाती है।

अब कहानी के धागे खोलें। सलमान डकैती कर भागे गुंडों को को रोकते हैं, और माल अपने पास रख लेते हैं। चुलबुले हैं तो कोई इस बात का लोड नहीं लेता है। छेदी सिंह से ठन जाती है, चोरी का माल छेदी का था। चुलबुल पांडे का दिल राजो पर आ जाता है। मां की मौत हो जाती है और चुलबुल अपने भाई-पिता से अलग हो जाते हैं। हरिया की मौत के बाद चुलबुल राजो से शादी कर लेते हैं। मैं भी क्या कर रहा हूं...एक मसाला बॉलीवुड फिल्म की कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूं। इसकी जरूरत क्या है। मोटी बात ये है कि अच्छी कहानी है।

कुछ देखी परखी
'हमका पीनी है...' और 'हुण हुण..दबंग दबंग..' गानों के फिल्मांकन और म्यूजिक में विशाल भारद्वाज की 'ओमकारा' का असर दिखता है। 'तेरे मस्त-मस्त दो नैन..' गाना अच्छा तो है, मगर इन दिनों आ रहे गानों की लैंथ कुछ कम सी लगने लगी है। क्वेंटिन टैरेंटीनो के अंदाज को डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने कहीं-कहीं बरता है, पूरी फिल्म में नहीं। कुछ ऐसी ही फील क्लामेक्स में गिटार की आती आवाज से होती है। या फिर उस वक्त जब अंतिम फाइट शॉट्स में परदा गहरा गुलाबी-हल्का लाल सा हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे 'रंग दे बसंती' के कुछ सीन में परदा ब्लैक एंड वाइट और रेतीले रंग सा हो जाता है। दबंग में साउथ की फिल्मों सा 'मसाला-एंटरटेनमेंट' कोशंट है। मगर मेरा मानना है कि ये एंटरटेनमेंट देखने वालों की दिमागी हेल्थ के लिए इतना अच्छा नहीं। इस बात में कोई शक नहीं कि दबंग सलमान के करियर की कुछ एक बेहतरीन फिल्मों में से एक है। 'मुन्नी बदनाम हुई...' गाने में हम सोनू सूद के फिल्मी करियर के सबसे लचीले और उम्दा परफॉर्मेंस को देखते हैं। सलमान के नाच के लिए दबंग को लंबे वक्त तक याद रखा जाना चाहिए। डायलॉग यूनीक हैं। अरसे बाद ऐसी फिल्म आई है जिसके एक-एक डायलॉग को मन से लिखा गया है। थियेटर से घर साथ लेकर जाते हैं...'क्या पांडे जी आप भी..' और 'भईया जी इस्माइल...' जैसे ढेर सारे डायलॉग्स को।
गजेंद्र सिंह भाटी