गुरुवार, 20 नवंबर 2008

" सिनेमा में ऐसा आक्रोश आज कहाँ "






अँधेरी रात है। .....चिता जल रही है। .....हथकड़ी पहने एक आदिवासी लहानिया भीखू खड़ा है। ....दयनीय , रुआंसे , काले , गरीब , गाँववाले ...कुछ आदिवासी खड़े हैं। चेहरों पर शाश्वत पराजय और अपराधबोध का भाव है। बीवी की हत्या का आरोप लहानिया पर लगा है। बीवी की चिता रोशनी से उसके चेहरे को उजला कर रही है। बूढा , जर्जर , दीन-हीन पिता फटी आँखे झुकाए पास खड़ा है। जैसे - तैसे अपनी देह को दुनिया की भोग दृष्टि से छिपाए जवान मासूम बहन ..लहानिया के दुधमुहे बच्चे को गोद में उठाए बेसुध खड़ी है।

1980 में बनी , जीवन की पहली निर्देशित फ़िल्म ' आक्रोश ' का परदा गोविन्द निहलाणी कुछ यूँ उठाते हैं। पहला दृश्य....आगे के बहुत से दृश्यों की तरह संवाद हीन है। लेकिन इस सन्नाटे में अजीत वर्मन का संगीत जो आक्रोश और जुल्म उजागर करता है .....वह काल - सीमा के परे है। लहानिया बने ओमपुरी पूरी फ़िल्म में ,अपनी स्मृति के कुछ पन्नों को छोड़कर ,एक भी शब्द नहीं बोलते हैं ।

उस दौर की सच्ची घटनाओं को लेकर विजय तेंदुलकर ने आक्रोश की कथा - पटकथा लिखी है। पंडित सत्यदेव दूबे के संवाद है। आज ओबामा , आधुनिकता , अंग्रेजी , अर्थ और अस्थिरता का दौर है। यह उस दौर की तस्वीर है.....जहाँ मल्टीप्लेक्स की जगह एकल ठाठिया थियेटर की फ़िल्म का प्रचार ताँगे दौड़ाकर किया जाता था । उस दौर में फ़्लाइओवर , जंगलों में लग रहे स्टील प्लांट और पॉपकॉर्न नहीं थे । उस दौर का नायक राष्ट्रीय रेडियो पर रात का फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम सुनते हुए दूध पीता था । मिशनरी पत्रकारिता ...आज के मीडिया मुग़ल और मीडिया हॉउस जैसे मुहावरों से अनजान....तब कंधे पर झोला लटकाती थी । तकनीक के नाम पर काली छपाई की मशीन थी । गाँवों - कस्बों की पगडण्डी तब ...काले डामर के सामने अकड़ती थी ।

बहरहाल भीतर में गहरे तक भींचे 'आक्रोश ' से लहानिया भीखू खौल रहा है। उसे शब्दों में व्यक्त करने से उसका विश्वास उठ चुका है । इन सबसे बेखबर कहानी का दूसरा पहलू.....भास्कर कुलकर्णी ....सवाल बन चुके लहानिया से ही सवाल पूछता है। सवाल ........जो सवाल कम इल्ज़ाम ज्यादा है। ....." पहले ये बताओ कि पहला खून किया है तुमने ? ......या पहला जुर्म ? .....क्या पहले कभी हवालात आये हो ?.....तुमने अपनी घरवाली का खून क्यों किया ?.......बदचलन थी ?"

भास्कर लहानिया का वकील है। सुबह टहलने , समुद्र तट पर दौड़ने , लहरों संग खेलने वाले भास्कर की आँखों में सपने है। वह अपने करियर की शुरुआत हारे हुए केस से नहीं करना चाहता है , लेकिन इल्जामी सवालों का उसे मूक जवाब ही मिलता है । प्रतिपक्षी वरिष्ठ वकील धसाने भास्कर के पिता का शागिर्द रह चुका है ....अब उसका गुरु है। जो लहानिया की खामोशी में अपने डूबते करियर को देखकर चिंतित भास्कर से कहता है कि " मैदान में द्रोणाचार्य के सामने अर्जुन भी हथियार उठाता है । हर धंधे का एक धर्म होता है और वकील का एक ही धर्म है .....वकालत । "

कचहरी के बाहर लहानिया का बूढा बाप लाचार खड़ा है । बुढ़ापे के सहारे को समाज के कानून ने एक केस नंबर में बदल कटघरे में बिठा दिया है , हाथ के सहारे की लकड़ी को कचहरी वालों ने बाहर ही रखवा दिया है । ताक़तवर के समाज ने उसे गरीब होने की सज़ा दी है । बुढ़ापे में पेट के लिए वह पेड़ काट रहा है ....बेटा जेल में है ......बेटी को वहाँ खड़ा तमीजदार छेड़ रहा है । अब खून के आँसू और शराब पीकर मरने के अलावा उसके पास कोई जवाब नही है । जंगलों की कटाई चलती रहती है । लदे ट्रक निकल जाएँगे । नाके पर बड़े इंसानों का जुगाड़ बैठा है।

यह वह सामाजिक व्यवस्था है , जहाँ एक निबल औरत के पति की हत्या का आरोपी बरी हो जाता है तो उसे कंधों पर बिठा लिया जाता है , ताजे फूलदार हार पहनाए जाते हैं , बाजे बजते हैं , गुलाल उड़ता है और पेडे बँटते है । पेडा खाता एक पसली का काले कोटवाला एक पोपला भास्कर से कहता है " फाँसी का केस था .......छुडा दिया ...........खाओ - खाओ पेडा खाओ ... ।

यहाँ रोज शाम को ताश खेलने के लिए एक जगह डीएसपी , नेता , वकील , डॉक्टर और उद्दमी जुटते हैं । ये एकजुट हैं .....जहाँ फायदा है । ये बुद्धिजीवी ......विकसित .......और आजवासी हैं । एक स्त्री को देखकर जरा इनकी बातों का स्तर सुनिए ......" हेड और टेल करो कि ये किसके साथ जायेगी । ........छोड़ो यार । .....हेड तुम रखो और टेल में रखता हूँ । "

एक मार्क्सवादी है जो व्यवस्था को जड़ से उखाड़ना चाहता है। उसके हिसाब से "एक को यानी लहानिया को इन्साफ मिलने से क्या होगा ?

इस व्यवस्था में सच को डराया और पीटा जाता है । राष्ट्रहित अख़बार के संपादक सामंत को सच छापने के लिए , भास्कर कुलकर्णी को सच का साथ देने के लिए पीटा जाता है । सरकारी वकील धसाने को समाज का एक सच होने के लिए डराया और कोसा जाता है । एक आदिवासी से प्रतिष्ठित सरकारी वकील हो जाने तक के सचस्वरूप रोज फ़ोन पर उसे भद्दी गालियों में ज़लील किया जाता है ।

लहानिया निशब्द है । उसकी आँखें बोलती है । घुटता लहानिया अन्दर ही अन्दर दम तोड़ रहा है । सच उसके गले की सूख चुकी आवाज के नीचे बैठा है । उसके पिता की देह छूट चुकी है । आज वह फिर एक चिता के सामने खड़ा है । सामने उसकी जवान बहन दुनिया की जिस्म की भूख के बीच अब अकेली खड़ी है । शायद लहानिया बीवी के लिए जो न कर सका बहन के लिए कर देता है । वह तेज़ी से एक कुल्हाड़ी लेता है और अपनी बहन का सर .......... ।

उसके बाद उसका गला एक ऐतिहासिक आक्रोश से फट पड़ता है ।असल मायनों में पूरी फ़िल्म में बस यही एक संवाद है .......सबसे बड़ा संवाद । भास्कर को आज तक लहानिया से पूछे अपने सभी सवालों का जवाब ...आज मिल रहा है ।

नसीरुद्दीन शाह भास्कर कुलकर्णी और अमरीश पुरी धसाने बने है । स्मिता पाटिल लहानिया भीखू की बीवी की संछिप्त लेकिन सम्पुष्ठ भूमिका में है । तय बात है कि ये सभी किरदार सदा के लिए अमिट-अमर है ।

आक्रोश को 1980 में ही सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था । अपनी पहली फ़िल्म में ऐसा सिनेमाई सपना रचने वाले गोविन्द निहलाणी ने बाद में सन् 1983 में अर्धसत्य और सन् 1988 में तमस जैसी बेहतरीन फिल्में गढ़ी । आज के सिनेमा के लिए ऐसा आक्रोश अब सम्भव नहीं है ।

गजेन्द्र सिंह भाटी