शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

" जंग और अमन "

आनंद पटवर्धन का यथार्थपरक वृतचित्र ' जंग और अमन ' ..विश्व शान्ति से अनभिज्ञ विश्व की और इशारा करता है। देखकर लगता है कि युद्ध की खिलाफत वाला विश्व अल्पमत में है। नाथूराम गोडसे की गोली से फ़िल्म शुरू होती है... जो गाँधी को तो खत्म कर देती है लेकिन एक शांत जगत की प्राप्ति के लिए अहिंसा की राह जिन्दा छोड़ जाती है ।

एक मराठी नाट्य प्रस्तुति फ़िल्म के प्रारंभ में दिखाई देती है। ' पोकरण 98 परमाणु परीक्षण ' के बाद महाराष्ट्र के एक राष्ट्रवादी समूह की और से आयोजित एक सार्वजनिक नाट्य मंचन में ..सफ़ेद कबूतर के ढांचे में एक विस्फोट दिखाया जाता है और ज़मीन पर पालथी मारकर बैठी श्र्धान्वित भीड़ को आयोजक कहता है कि कबूतर शान्ति का प्रतीक है ....हमने शान्ति के लिए विस्फोट किया है। पूरी फ़िल्म का सम्पादन कुछ इस तरह किया गया है कि जंग और अमन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोग किस कदर एक अँधा वैचारिक मानस लेकर जीते हैं ..नज़र आता है । विडम्बना है और हँसी आती है।

पोकरण के पास खेतोलाई गाँव के लोगों का जीवन 1974 और 1998 के बाद वाजपेई के बुद्धा की तरह कितना मुस्कुराया है यह दिखाई देता है। गाँव के युवा और सम्रद्ध वासी खुश हैं कि पोकरण रातोंरात विश्व की नजरों में चढ़ा है। वहीं एक अनपढ़ बूढा भी है , जो कहता है कि , " ये देश के युवा हैं ...ये चाँद पर पहुँचना चाहते हैं , मगर मैं तो धरती पर ही रहना चाहता हूँ " आनंद पटवर्धन पूरी फ़िल्म में अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ते और फ़िल्म देख कर काला हास्य बरबस पैदा होता है।

भारत में नौसेना के हथियारों की प्रदर्शनी देखते हुए एक युवती सवाल के जवाब में कहती है ... " अभी आए गुजरात भूकंप के लिए पैसा विदेश से दान में आ रहा है इसलिए देश के पैसे से इन हथियारों का निर्माण ज्यादा जरुरी है " युवती कहती है कि हम तो यहाँ मनोरंजन देखने आए हैं ..... खुबसूरत हथियार हैं। ....... भला हथियार के साथ खुबसूरत का विशेषण कैसे जोड़ा जा सकता है ?

सांकेतिक द्रश्यों से भरी पड़ी यह फ़िल्म नाथूराम गोडसे की गोली से शुरू होकर अहिंसा के एकमात्र उपाय के उपसंहार पर ख़त्म होती है। फ़िल्म में साध्वी ऋतंभरा का पाकिस्तान विरोधी भाषण है। ... वी रमन्ना और पी के अय्यंगर जैसे परमाणु वैज्ञानिक है जो बम बनाना तो जानते हैं ..मगर इन्हें गिराए कहाँ यह नहीं जानते। ...झारखण्ड के जादूगोड़ा में यूरेनियम का कारखाना है , जहाँ खदानों से हुआ रेडिएशन ...एक स्वस्थ ,खुश ..डॉक्टर को अंधेरे में बैठे मृतप्राय रोगी में तब्दील कर चुका है। यहाँ रेडिएशन के प्रभाव से बच्चे विकलांग हो गए हैं । ये बच्चे कहते हैं कि " हम प्रदर्शन करते हैं तो कहा जाता है कि हम देश की सुरक्षा नहीं चाहते। ...हम देश की ऐसी सुरक्षा नहीं चाहते हैं जो हमें ही सुरक्षा नहीं दे सके। ..... हम मरेंगे तो क्या बाकी बचे रहेंगे ? "

फ़िल्म में एक जापानी वृद्ध है जिसके माँ - बाप इनोला-गे विमान द्वारा गिराए परमाणु बम से हिरोशिमा में मारे गए थे । ..रोते हुए वह कहता है, " मैं उन अमरीकियों से नफरत नहीं करता ..क्योंकि बुद्ध कहते हैं , नफरत को नफरत से नहीं जीता जा सकता है। " अमरीका के युद्ध , हथियार और विमानों के एक संग्रहालय का मुख्यद्वार है ..जिस पर उसका नाम लिखा है ....' धर्म और देश की खातिर ।' ये वही हथियार हैं जिनसे जनसंहारक युद्ध लड़े गए ...जिनसे कमजोर देशों पर हमले किए गए।

भाभा एटॉमिक एनर्जी के डॉ पी के अय्यंगर कहते हैं कि पूरे देश में एक भी व्यक्ति रेडिएशन से नहीं मरा.......पर यह भी कहते हैं कि परमाणु बम गिराने की नौबत आए.. तो महाद्वीप से बाहर ही गिराया जाए। फ़िल्म में " जय जवान , जय किसान , जय विज्ञान " का नारा ..पीड़ितों के सन्दर्भ में देखकर बेहद कुरूप और भयावह लगता है। पटवर्धन के कुछ संवाद और पृष्ठभूमि से आती प्रस्तावक की स्थिर आवाज जीवन्तता और यथार्थ को दृश्यों के पीछे से खींच सामने निरीह सा ला खड़ा करती है।

" सरहद के दोनों ओर के जेहादियों के लिए एटम बम भगवान की देन है" ........ " अमरीका का हथियारों का गीत आज मेरा भारत भी गुनगुनाने लगा है " ..... जैसे संवाद दो विपरीत तर्कों के बीच रिश्ता जोड़ते चलते हैं। इसका उपसंहार ओसामा बिन लादेन और 9/11 के रूप में दिखाया है। अंत में पटवर्धन राह सुझाते हुए कहते हैं कि उस दिन को आने में लंबा वक्त लगेगा जब प्यार अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में स्थान लेगा । इस तबाही से जीतने का एक ही रास्ता है ..................अहिंसा । .......बिना शर्त अहिंसा

फ़िल्म का छायांकन वृत्तचित्र शैली का यथार्थपरक सा है। संवाद सटीक जगह पर हैं। प्रमुख भूमिका संपादन की थी जो कि सफल दिखाई देती है। असल जिन्दगी के इस जंग और अमनी अध्याय में विडंबना पर विडंबना का सुगम चित्रांकन है।

गजेन्द्र सिंह भाटी





बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

अकीरा कुरोसावा की क्लासिक ' राशोमोन '




क्लिंटन ट्रायल्स के वक़्त भी ' राशोमोन ' शब्द का इस्तेमाल होता रहा था। अमरीका में तो यह शब्द एक मुहावरा सा बन गया था। अकीरा कुरोसावा की श्वेत-श्याम फ़िल्म 'राशोमोन' एक ही घटना का तीन अलग - अलग तरीकों से जीवंत प्रस्तुतीकरण है। एक यात्री सामुराई जंगल में से गुज़र रहा है, साथ में उसकी पत्नी है। रास्ते में ' ताजोमारू ' नाम का एक डाकू उसे बंदी बना लेता है। उसकी पत्नी के साथ दुष्कर्म करता है।..और बाद में सामुराई की लाश जंगल में पड़ी मिलती है।

इस घटना के तीन संस्करण तब उभरते हैं, जब भारी मूसलाधार बारिश में जापान के क्योटो में ' राशोमोन गेट ' के नीचे तीन व्यक्ति शरण लेते हैं। एक पुजारी है और एक लकड़हारा है। ये गए जमाने के मासूम और शीतल किरदार आज कल कभी-कभार बच्चों के लिए बनी फिल्मों में दिखाई पड़ जाते हैं बस। उसमें भी ' होम अलोन ' के हैरी पुत्तर नुमा क्लोन बनने शुरू हो गए हैं। पुजारी हीरो - हिरोइन को प्रसाद और फूल देकर समाप्त हो जाता है तो लकड़हारों की कौम फिल्मों से विलुप्त हो चुकी है। खैर....... ये दोनों ही अपनी स्थानीय न्याय-व्यवस्था के सामने अपना-अपना बयान देकर आए हैं। और जो कुछ अभी-अभी हुआ था उस पर यकीन करने की .....समझने की कोशिश कर रहे हैं। तभी वहाँ से एक राहगीर... गुज़रते हुए आ रुकता है। दोनों के संस्करण सुनता है।

फ़िल्म में निर्देशक ने अद्भुत तनाव और असमंजस की स्थितियाँ पैदा की हैं। हालाँकि मनोरंजन के पहलू से यह फ़िल्म कमजोर पड़ती है। डाकू और बीवी के किरदारों ने कमाल का अभिनय किया है। दोनों ही किरदारों की विविधता को बड़ी ही खूबसूरती से फ़िल्माया गया है। फ़िल्म का प्रष्ठभूमि संगीत बेहद प्रभावी और जरूरी है। सांकेतिक रूप से फ़िल्म में संवाद आगे बढ़ता चलता है। फ़िल्म का हर फ्रेम बोलता है, चाहे उसमें संवाद नहीं भी हो।

स्त्री की वफ़ादारी और नैतिकता पर पहले निर्देशक सवाल खड़े करता है। फिर ख़ुद ही किसी दूसरे किरदार से एक छोटी बेईमानी करवाकर समाज को उसका जवाब भी दे देता है। दशकों पहले बनी ' राशोमोन ' का विषय अपने वक़्त के हिसाब से काफी बोल्ड है।

गजेन्द्र सिंह भाटी